स्वर्णरस की सिद्धि प्राप्त होने पर भर्तृहरि ने अपने बड़े भाई आचार्य शुभचन्द को १ तुम्बी में रस लेकर भेंट में दिया और कहा-पुज्य भ्राता! मैंने १२ वर्ष की तपस्या के बाद यह स्वर्णरस सिद्ध कर लिया है, यह रस लोहे को स्पर्श करते ही स्वर्ण बना देता है। शुभचन्द्राचार्य ने वह तुम्बी भर रस एक शिला पर पटक दिया। भर्तृहरि ने कहा – आपने मेरी १२ वर्ष की तपस्या का परिश्रम क्यों बर्बाद कर दिया? तब आचार्य श्री ने समझाया यदि स्वर्ण की ही चाह थी तो राज्य क्यों छोड़ दिया? ख्याति लाभ संसार कामना लेकर बना विरागी। विषय वासना जागृत उर में, फिर कैसा तू त्यागी ?