महाराज श्रेणिक ने धर्म विद्वेषवश यशोधर मुनिराज के गले में एक मरा हुआ सर्प डाल दिया और राजभवन में जाकर चेलना को यह समाचार सुनाया। यह दुखद समाचार सुनते ही अत्यन्त ही दुखी होकर चेलना विलाप करने लगी। यह देखकर श्रेणिक ने कहा – देवी! इसमें रोने और दुखी होने की क्या बात है? उन्होंने तो कभी का उसे निकालकर फेंक दिया होगा।
यह सुनकर चेलना बोल उठी – राजन्! अनर्थ! घोर अनर्थ! तुमने जो उनको दुख देने का प्रयत्न किया है, वीतरागी दिगम्बर साधु उस दुख से बचने के लिये उसे निकालकर कभी नहीं फेंक सकते क्योंकि उनको सुख दुख की सभी सामग्री एक समान है। वे इसे दुख ही नहीं मानते हैं। इस बात का विश्वास करने के लिये राजा रानी मुनिराज यशोधर के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर देखा तो लाखों चीटियों ने सारे बदन में काट-काटकर फुटबॉल जैसा फुला दिया है। चेलना ने जमीन पर चीनी डालकर चीटियों को उतारा और साँप निकलवाकर अलग किया। उपसर्ग दूर हुआ समझकर मुनिराज ने अपनी समाधि खोली। राजा रानी ने मुनिराज के चरणों मे नमस्कार किया। मुनिराज के सामने दोनों शत्रु मित्र होते हुए भी दोनों को समान रूप से सहर्ष शुभाशीर्वाद दिया। “तुम दोनों का कल्याण हो” राजा श्रेणिक इस महान् वीतरागी संत का अपूर्व समताभाव देखकर चरणों गिर क्षमा याचना करने लगा। धन्य हैं रत्नत्रयधारी वीतरागी सन्तों की समतादृष्टि! इस समताभाव से श्रेणिक इतने प्रभावित हुये कि वे जैन धर्म के दृढ़श्रद्धानी बन गये। उन्होंने भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में क्षायिक सम्यक्दर्षन प्राप्त कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। वे उत्सर्पिणी काल के महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर बनकर स्वयं संसार से मुक्त होगे और अनन्तजीवों के आत्मोद्धार में आदर्श बनेंगे।